Zenab rehan

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तीसरा अध्याय




श्री कुमारिल की लिखी तंत्रवार्तिक नाम की मीमांसा की पोथी की एक महत्त्वपूर्ण चर्चा भी इस मामले में प्रकाश डालती है। मीमांसादर्शन के सूत्रों पर जो शबर भाष्य है उसी की टीका का नाम तंत्रवार्तिक है। दरअसल भट्टपाद कुमारिल की समूची टीका तीन भागों में बँटी है। पहले अध्यााय के प्रथम पाद की टीका का नाम है श्लोकवार्त्तिक। उस अध्याभय के शेष को लेकर तीसरे अध्यायय के अंत तक की टीका को ही तंत्रवार्तिक कहते हैं। शेषांश की टीका कही जाती है टुप्टीका। उसी तंत्रवार्त्तिक में प्रथमाध्याहय के तीसरे पाद के सातवें सूत्र 'अपिवा कारणाग्रहणे प्रयुक्तानि प्रतीयेरन्निति' के व्याख्यान में एक स्थान पर नास्तिक की शंका के रूप में लिखा है कि हिंदू लोग जिस कृष्ण को महान पुरुष मानते हैं उनकी हालत यह थी कि शराब पीते थे। उनने मामा की लड़की से शादी भी की थी। दरअसल रुक्मिणी उनके मामू की ही तो पुत्री थी। इस प्रकार धर्माचार्यों और अवतारों पर एक के बाद दीगरे दोषारोपण करके सनातन धर्म की निंदा की गई है। किंतु जहाँ ब्रह्मा, व्यास आदि के बारे में उसने व्यभिचार आदि की बातें लिखी हैं तहाँ कृष्ण के बारे में उसे सिर्फ पूर्वोक्त दोष ही नजर आए हैं। लेकिन यदि भट्टपाद के समय में रासलीला की बात प्रसिद्ध होती तो वह नास्तिक के मुँह से जरूर ही वही बात कहलवाते। वह साधारण लोगों के समझ में आने की बात भी थी। मगर शराब पीने या मामू की कन्या से शादी करने की बात तो कुछ ऐसी ही है। फलत: मानना होगा कि नौवीं शताब्दी तक, जब कि भट्टपाद हुए, रासलीला का पता कहीं न था। यह तो उसके बाद ही पोथियों में घुसेड़ी गई मालूम पड़ती है। खूबी तो यह है कि कुमारिल ने समाधान करते हुए जहाँ लिखा है कि रुक्मिणी सचमुच मामू की लड़की न थी, वहीं यह भी लिखा है कि जो कृष्ण संसार के लिए आदर्श-स्थापक थे वही खुद विरुद्ध काम भला कैसे कर सकते थे? फिर उनने गीता के उन्हीं श्लोकों को उद्धृत भी कर दिया है कि 'मम वर्त्त्मानुवर्त्तेरन्मनुष्या: पार्थ सर्वश:। यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्त्तते' (3। 23। 21)। उनका यह उद्धरण बड़े काम का है और वस्तुस्थिति को बताता है।

उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।

संकरस्य च कर्त्ता स्यामुपहन्यामिमा: प्रजा:॥24॥

(नतीजा यह होगा कि) यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सभी लोग - सारी दुनिया - ही चौपट हो जाए। (इस तरह) मैं ही वर्णसंकर करने का जिम्मेदार बन जाऊँ (और) इस सारी प्रजा का नाशक हो जाऊँ। 24।

खयाल हो सकता है कि जब सभी को एक ही लाठी से हाँका जाता है, जब कर्मों का करना विद्वान-अविद्वान या ज्ञानी-अज्ञानी के लिए समान रूप से ही जरूरी है, तो फिर दोनों में फर्क रही क्या जाता है? ज्ञानी को विद्वत्ता ने उसे क्या किया? यह तो कुछ उलटी-सी बात हो गई। अविद्वान को आधिभौतिक, आधिदैविक, आध्त्यात्मिक ये तीन ही कष्ट होते हैं। मगर विद्वान होने पर बड़े-बड़े पोथों के अभ्यास करने का कष्ट, यदि कुछ भूले तो उसका, अगर कहीं विवाद में हारे तो उसका और न हारने पर जबर्दस्त साँड़ की तरह गर्व का, इस तरह कुल सात कष्ट हो जाते हैं। कहाँ चले थे तीनों से पिंड छुड़ाने और कहाँ चार और जुट गए! 'चौबे गए दूबे बनने तो छब्बे होके लौटे' वाली बात हो गई! इसीलिए नारद ने सनत्कुमार से कहा था कि महाराज, कोई रास्ता बताइए, नहीं तो यह तो बला हो गई और लेने के देने पड़ गए! जितना ही पढ़ा और पोथी-पुराण उलटा उतनी ही आफत बढ़ती गई, जैसा कि (छांदोग्य 7। 1। 1-3) तथा 'वेदाभ्यासात्पुरातापत्रयमात्रेण दु:खिता। पश्चात्त्वभ्यासविस्मारभंगगर्वैश्च शोकिता' (पंचदशी 11। 19) में लिखा है। जब दोनों ही गधे की तरह दिन-रात कर्मों में खटते-मरते ही रहेंगे, तो सचमुच ही दोनों में फर्क होगा क्या? इसका उत्तर यह है -

सक्ता: कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।

कुर्याद्विद्वांस्तथाऽसक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्॥25॥

हे भारत, कर्मों में लिपटे-चिपटे अनजान लोग जिस तरह उन्हें (पूरा दिल लगा के) करते हैं विद्वान भी वैसा ही दिल लगा के करे। (मगर फर्क यही रहे कि एक तो वह) उनकी तरह लिपटा-चिपटा न रहे या हाय तोबा न करे। दूसरे उसका लक्ष्य लोकसंग्रह ही रहे। 25।

जो लोग खयाल करते हैं कि निजी स्वार्थ न रहने और आसक्ति खत्म हो जाने पर कर्म उतनी खूबी और लगन के साथ नहीं किए जा सकते, उनका उत्तर भी इसी में आ गया है। विद्वान का अपना तो समस्त संसार ही हो जाता है - उसका परिवार तो बहुत विस्तृत एवं व्यापक हो गया। इसीलिए उसकी लग्न कर्मों में और भी तेज हो जाती है। यह हाय-तोबा न रहने के कारण उसकी सारी दृष्टि इधर-उधर न बँट के कर्म पर ही रहने से कर्म और भी खूबी तथा सुंदरता के साथ पूरा होता है। यही तो है कर्म के ऊपर समस्त शक्ति का केंद्रीभूत (Concentration) होना। हाय-तोबा खत्म हो जाने से बेचैनी - परेशानी - भी नहीं रहती। वह बराबर मस्त भी रहता है।

जिनका विचार हो कि विद्वान स्वयं तो कर्म लगन के साथ जरूर करे। मगर अज्ञानियों को कुछ समझाता-बुझाता भी रहे कि वे कर्म में आसक्ति छोड़ें और अपनी प्रगति का रास्ता साफ करें, उन्हीं के लिए आगे के चार (26-29) श्लोकों की बातें हैं। दरअसल अविद्वान और अज्ञानी जनों को दो दलों में बाँट सकते हैं। एक तो ऐसे लोगों का, जो कुछ न कुछ समझते हैं सही। फिर भी विद्वानों के समान या उनके समाज के लायक नहीं होते। उन्हें अक्षरकट्टू कहिए, टटुपुँजिये समझदार कहिए, या अर्द्ध-दग्ध कहिए। मगर उनमें इतनी ही विशेषता होती है कि वे बातें समझते हैं, समझाने से कम-बेश समझ सकते हैं। इसीलिए वे गीता की गिनती में और गीताधर्म की ओर अग्रसर होनेवालों में भी आ सकते हैं, यद्यपि उनका दर्जा सबसे नीचे होता है। ऐसे ही लोगों के बारे में 'असक्त: स विशिष्यते' (3। 7) कहा गया है। उन्हें समझाना-बुझाना ठीक ही होता है - उसका कुछ न कुछ परिणाम होता ही है, फिर चाहे जल्द हो या देर से हो।

मगर दूसरा दल ऐसों का होता है जो चींटे की तरह कर्मों से लिपटते हैं, ऊँट की पकड़ पकड़ते हैं। वे जिस चीज को पकड़ते हैं उसे छोड़ना जानते ही नहीं। वे इतने सीधे और भोले होते हैं कि विवेक और अक्ल से उन्हें ताल्लुक होता ही नहीं। वे तो सिर्फ देखा-देखी करते हैं। उन्हें समझाइएगा तो शायद ही समझें इसीलिए सीधे कह दीजिए कि यह काम करो और वे उसमें तन-मन से लिपट पड़ेंगे। सच पूछिए तो उन्हीं के लिए कह सुनाने की अपेक्षा कर दिखाने की जरूरत कहीं ज्यादा होती है। पहले जो कृष्ण ने अपना दृष्टांत देकर लोकसंग्रह का विवरण बताया है वह ऐसों ही के लिए हैं। लोकसंग्रह के लोक या लोग ऐसे ही सीधे जन हैं। उन्हीं का संग्रह या सन्मार्ग पर जाना, यही लोकसंग्रह है। उन्हें इधर-उधर भटकने न दे के एक रास्ते में बाँध रखा जाता है।

ऐसे ही लोगों के बारे में एक पंडितजी के श्राद्ध करवाने की बात कही जाती है। पंडितजी का यजमान इतना सीधा था कि ठीक ही आँख मूँद के चलता था। पिंडदान के समय पहले ही पंडितजी ने उससे कह दिया कि मैं जो बोलूँ वही तुम भी बोलना। उनका आशय तो था मंत्रों से, कि मैं जो मंत्र जैसे पढूँ तुम भी वैसे ही पढ़ते जाना। मगर वह था इतना सीधा कि उसने ऊँट की पकड़ पकड़ ली। जब पंडित ने श्रीगणेश करते हुए उससे कहा कि तैयार हो जाओ, तो वह भी चट बोल बैठा कि तैयार हो जाओ। इस पर पंडितजी ने रंज हो के कहा कि मैं तुमको पिंडदान के लिए तैयार हो जाने को कहता हूँ। फिर तो वह भी बोल उठा कि मैं तुमको पिंडदान के लिए तैयार हो जाने को कहता हूँ! अजीब बात थी! पंडित जी जो बोलते थे वह भी वही दुहराता जाता था। उनने लाख कोशिश की कि उसे समझा के ठीक करें। मगर घंटों इस हुज्जत में लगने पर भी कुछ नतीजा न हुआ। उसने तो उनकी शुरूवाली बात पकड़ ली थी। बस, ऐसे ही लोगों से यहाँ मतलब है। उन्हें समझाने की कोशिश करना बला मोल लेना है, जैसी कि पंडितजी की हालत हुई, रेशानी हुई, और अंत में क्रोध में पटका-पटकी तक हो गई, जिसमें उसने पंडितजी को धर दबोचा। मजबूत तो था ही। खूबी तो यह कि इतने पर भी वह समझता था कि मैं श्राद्ध ही कर रहा हूँ और यही श्राद्ध है! ऐसे लोगों को समझाने की कोशिश करने पर वह कहीं के नहीं रह जाते। वह तो ऊँट की पकड़वाली एक ही अक्ल जानते हैं, जैसा कि हितोपदेश का मेढक केवल भागने की एक अक्ल - एक बुद्धि जानता था। उपदेश देने में वह बुद्धि भिन्न हो जाती है, टुकड़े-टुकड़े हो जाती है, बँट जाती है और वह आदमी कहीं का रह जाता नहीं।

न बुद्धिभेदं जन ये दज्ञानां कर्मसंगिनाम्।

जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्त: समाचरन्॥26॥

कर्मों में लिपटे-चिपटे भोले अज्ञानी जनों की (उस ऊँट की पकड़वाली एक) अक्ल को छिन्न-भिन्न (हर्गिज) न करे। किंतु योगी विद्वान स्वयं सभी कर्मों को करता हुआ (देखा-देखी) उनसे भी करवाए। 26।

प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश:।

अहंकारविमूढात्मा कर्त्ताऽहमिति मन्यते॥27॥

(क्योंकि यद्यपि) प्रकृति के गुणों के द्वारा ही सभी कर्म किए जाते हैं (न कि आत्मा करती है। तो भी) जिनकी आत्मा अहंता-ममता - मैं और मेरे के खयाल - के करते बिलकुल ही मोह में - घोर अँधरे में - फँसी है; फलत: जिन्हें (कुछ भी नहीं सूझता) वह अपने आपको ही करने वाले माने बैठे होते हैं। 27।

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयो:।

गुणा गुणेषु व र्त्तंत इति म त्त्वा न सज्जते॥28।

हे महाबाहो, (इसके विपरीत) जो लोग गुणों और कर्मों के हिसाब-किताब और ब्योरे को पूर्ण रूप से जानते हैं - उसकी असलियत को देखते हैं - (कि किस गुण के साथ किस कर्म का कैसा ताल्लुक है) वह तो, यही जानकर कि गुणों से बनी कर्मेंद्रियाँ ही उन्हीं से बने कर्मों में लगी हैं, उन कर्मों में लिपटते नहीं। 28।

प्रकृतेर्गुणसंमूढा: सज्जन्ते गुणकर्मसु। तानकृत्स्नविदो मन्दान् कृत्स्नविन्न विचालयेत्॥ 29॥

(लेकिन) जो प्रकृति के गुणों की इन सभी बातों को कतई जानते ही नहीं, वे गुणों के कर्मों में खुद फँस जाते हैं। (इसीलिए) सारी बातों को पूर्ण रूप से न जान सकने वाले उन नादानों को सभी बातों का जानकर आदमी (हर्गिज) घपले में न डाले। 29।

हमने पहले गुणवाद के प्रकरण में इन तीनों गुणों के सभी पहलुओं पर पूर्ण प्रकाश डाला है। वहीं बताया है कि किस तरह गुण आपस में मिल के चलते और सभी कर्म करते-कराते हैं। इंद्रियों का भी विवरण अच्छी तरह दिखाया गया है कि कौन-सी इंद्रियाँ किस गुण से बनी हैं। इंद्रियों को और समूचे संसार को भी - इसीलिए कर्मों को भी - गुण क्यों कहते हैं यह भी बताया गया है। ऊपर के तीन (27-29) श्लोकों में यही बातें कही गई हैं। इसीलिए कर्मों और इंद्रियों को भी गुण कहा है और गुणों तथा कर्मों के बँटवारे या विभाग की भी बात इसीलिए कही गई है।

मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्या त्मचेतसा।

निराशीर्निर्ममो भूत्वा यु ध्य स्व विगतज्वर:॥30॥

(इसलिए तुम) आत्मज्ञान के बल से सभी कर्मों को मुझमें - भगवान में - अर्पण करके (और) सभी तरह की आसक्तियों एवं ममताओं से रहित हो के मस्ती के साथ लड़ो। 30।

यहाँ जो 'अध्यामत्मचेतसा' दिया है, ठीक इसी तरह की बात 'चेतसा सर्व-कर्माणि' (18। 57) में आई है। गौर से देखने से मालूम होता है कि दोनों जगह एक ही बात कही गई है। मगर अठारहवें अध्यााय वाले श्लोक के उत्तरार्द्ध में 'बुद्धियोगमुपाश्रित्य' शब्द भी आया है। उससे पूर्व के (50-56) श्लोकों में ज्ञाननिष्ठा की ही बात आई है। सो भी सबसे ऊँचे दर्जे की - परा - ज्ञाननिष्ठा की बात। उसी के सिलसिले में छठे अध्या य के ध्या नयोग की ही तरह वहाँ भी ध्याबनयोग का और उसके साधन-स्वरूप नियमित भोजन आदि का वर्णन आया है। इससे स्पष्ट हो जाता है समाधि वगैरह के द्वारा पूर्ण आत्म-साक्षात्कार और आत्मानुभव की बात वहाँ कही गई है। यही वजह है कि उसी समाधि की सिद्धि के लिए कर्मों का स्वरूपत: त्याग भी जरूरी हो जाता है। यह बात वहाँ भी आई है। मगर आत्मज्ञान होने के बाद भी शायद कर्मों के त्याग पर हठ होने लगे, इसीलिए यह कहने की जरूरत हुई है कि पीछे तो कर्मों के स्वरूपत: संन्यास की जरूरत नहीं होती। यों स्वयमेव छूट जाए यह बात दूसरी है। तो फिर होता है क्या? होता है यही कि तत्त्वज्ञान के फलस्वरूप कर्मों को अपने में, आत्मा में तो सटने देते नहीं - कर्म आत्मा में तो रहने पाते नहीं। वहाँ से तो निकाल बाहर कर दिए गए! फिर वे रहें कहाँ यह सवाल होने पर उत्तर मिलता है कि जहाँ सारी दुनिया रहती है। यह दुनिया तो भगवान में ही रहती है यह बात 'मयिसर्वमिदं प्रोतं' (7। 7), 'यो मां पश्यति सर्वत्र' (6। 30), 'वासुदेव: सर्वमिति' (7। 19), 'यस्यान्त: स्थानि भूतानि' (8। 22), 'मत्स्थानि सर्वभूतानि' (9। 4) आदि में साफ ही कही गई है। इसीलिए 'ब्रह्मण्याधाय कर्माणि' (5। 10) में भी कर्मों को ब्रह्म में ही स्थापित कर देने की बात कही गई है। वही बात यहाँ भी है। ज्ञानी यही समझता है कि मैं तो कुछ कर्त्ता-वर्त्ता नहीं। सृष्टि का काम चलता है तो चले। इसमें अड़ंगा डालने वाला मैं कौन? मैं ऐसा करूँ भी क्यों? जिसकी यह सृष्टि है वह जाने और उसका काम जाने। मुझे इसकी फिक्र कि ये मेरे कर्म कहाँ रहेंगे और क्या करेंगे? इन सभी वाहियात खुराफातों का भार मेरे ऊपर तो है नहीं। यही है तत्त्वज्ञानपूर्वक कर्मों का भगवान में अर्पण, निक्षेप, स्थापना या संन्यास।

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवा।

श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यंते तेऽपि कर्मभि:॥31॥


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